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शनिवार, 24 जनवरी 2009
भ्रम
एक से दीखते सरे चहरे , मटमैली चादर ओढे चलते है काट दिए सभी तरु घनेरे ,तपती राहों मेअब इंसानी तलुए जलते है पूनम चन्द्रिका त्यागी
बेबसी
खामोशी में सुकून तलाशना ,कितना व्यर्थ प्रयास है / ये चीखती खामोशियाँ बहरा करदेती है , इनमे प्रतिध्वनियाँ है तुम्हारे शब्द-की /बंदिशें हो जहाँ साँस -२ पर ,फ़िर भी उड़ जाता है मन /सलाखों के पार नीले आसमानों मे,कोहेरे की धुंदली चादर मे जहाँ हो चुकी हो शुरुआत अंत होने की /पूनम चन्द्रिका त्यागी
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