शांत झील मे तिरता पत्ता नीद सुखद सी सोता है , आते है जब बदल घिर घिर सारा अम्बर रोता है , उठती है जो लहर झील मे दर्प से वो इठलाती है जाऊँ अंतस मे सागर झूम झूम कर गाती है , झील मे स्थिर जल सतह को मंद पवन सिहरती है ,इस सिहरन की आहट उस पत्ते तक भी आती है ,विरहासिक्त आकुल मन पत्ता ,शरण झील की पाता है ,और दबी पानी की भाषा मे जलगीत झील का गाता है /
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